दिल्ली में हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 27 साल बाद सत्ता
में वापसी की है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि जनता का झुकाव बदल सकता है,
बशर्ते कोई
पार्टी अपनी विचारधारा और संगठन को मजबूत बनाए रखे। आम आदमी पार्टी, जो 2013
में उभरकर आई
थी, अब केवल 22 सीटों पर सिमट गई, जबकि कांग्रेस लगातार तीसरी बार शून्य पर रही।
इस परिणाम से यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय राजनीति में केवल लहरों के सहारे
सत्ता में बने रहना मुश्किल होता है। एक स्थायी राजनीतिक ताकत बनने के लिए किसी भी
पार्टी को मजबूत जमीनी पकड़, वैचारिक स्थायित्व और जनसमर्थन बनाए रखना आवश्यक होता है।
देश में इस वक़्त दो ही बड़ी पार्टियां हैं – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी.
इन दोनों ही पार्टियों की अपनीअपनी विचारधारा है, जिस पर यह चलती हैं. सालों
सत्ता से दूर होने के बावजूद अपनी विचारधारा के दम पर ही ये वापस सत्ता में लौट
आती हैं. लेकिन कुकुरमुत्तों की तरह अचानक उग आई पार्टियों के पास अपनी कोई सशक्त
विचारधारा नहीं होती है. नतीजा पांचदस साल सत्ता में रह कर वे ऐसी गायब होती हैं
कि उन का नामलेवा भी कोई नहीं बचता.
27 साल
बाद भाजपा का सूखा कटा और येनकेनप्रकारेण दिल्ली की सल्तनत उस के हाथ लगी. दिल्ली
विधानसभा की 70 सीटों
में से 48 उसके खाते में आ
गईं जबकि 10 साल से शासन कर
रही आम आदमी पार्टी 22 पर
ही सिमट गई और 1998 के
बाद 15 साल तक दिल्ली पर
राज कर चुकी कांग्रेस ने तीसरी बार जीरो का हैट्रिक रचा.
दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते
हुए 71% की स्ट्राइक रेट के साथ 40 सीटों की बढ़ोतरी दर्ज की। 2020 की तुलना में भाजपा के वोट
शेयर में 9% की वृद्धि हुई, जबकि आम आदमी पार्टी को 40 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा
और उसका वोट शेयर 10% गिरा। हालांकि, कांग्रेस को इस बार भी कोई सीट नहीं मिली,
लेकिन उसका वोट
शेयर 2% बढ़ा, जो पार्टी के पुनरुद्धार की संभावना को इंगित करता है।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में अक्सर क्षेत्रीय पार्टियां
उभरती हैं और जनता के बीच एक नई उम्मीद जगाती हैं। कई बार कोई नया नेता जनता के
बीच से निकलकर अपनी पार्टी बनाता है, जिससे जनता को लगता है कि
यह व्यक्ति उनकी समस्याओं को समझता है। लेकिन कुछ वर्षों बाद वही जनता उस पार्टी
को नकार देती है, जिससे वह पार्टी राजनीतिक हाशिये पर पहुंच जाती है। दिल्ली
विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के साथ कुछ ऐसा ही होता दिखा।
उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है, जहां कभी
प्रभावशाली रही क्षेत्रीय पार्टियां अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में यह
स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा ही दो प्रमुख ध्रुव
हैं, जो अपनी स्थायी विचारधारा के बलबूते पर बार-बार सत्ता में वापसी करने में
सक्षम होती हैं। इसके विपरीत, अचानक उभरने वाली पार्टियों के पास न तो सशक्त विचारधारा
होती है और न ही दीर्घकालिक जनसमर्थन, जिसके चलते वे कुछ वर्षों बाद राजनीतिक परिदृश्य
से गायब हो जाती हैं।
दिल्ली चुनाव परिणाम इस बात का संकेत हैं कि जनता एक बार फिर राष्ट्रीय
पार्टियों की ओर रुझान दिखा रही है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनावों
में यह प्रवृत्ति कितनी मजबूत होती है और क्षेत्रीय दल किस तरह अपने अस्तित्व को
बचाने की कोशिश करते हैं।
अरविंद केजरीवाल: अर्श से फर्श तक
आम आदमी पार्टी को जन्म देने और उसे सत्ता के शिखर तक पहुँचाने का श्रेय
अरविंद केजरीवाल को जाता है, लेकिन अब पार्टी के पतन का ठीकरा भी उन्हीं के सिर फूटा है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में न केवल आम आदमी पार्टी को करारी शिकस्त मिली, बल्कि खुद
पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल अपनी परंपरागत नई दिल्ली सीट भी नहीं
बचा पाए।
कट्टर ईमानदारी के नैरेटिव पर राजनीति करने वाले केजरीवाल को 10 साल बाद जनता
ने पूरी तरह नकार दिया। वे अपने कामकाज का सर्टिफिकेट लेने जनता के पास गए,
लेकिन जनता ने
उन्हें और उनके सहयोगियों को आइना दिखा दिया। फ्री बिजली, पानी, और बस यात्रा
जैसी योजनाओं का आकर्षण अब फीका पड़ चुका था। लोग केवल वादों से नहीं, बल्कि ठोस
विकास कार्यों से संतुष्ट होना चाहते थे। इसके विपरीत, विपक्ष द्वारा घोटालों के
आरोप इतने जोर-शोर से उठाए गए कि जनता को लगने लगा कि इन आरोपों में सच्चाई हो
सकती है।
कभी दिल्ली की राजनीति में भूचाल लाने वाली आम आदमी पार्टी को अब ऐसा झटका लगा
है कि उसका भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। पहले ही 8 विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा
में शामिल हो चुके हैं, और आने वाले दिनों में इस टूट-फूट के और बढ़ने की संभावना
है। सत्ता की लालसा में कई और नेता भाजपा या कांग्रेस का रुख कर सकते हैं।
केजरीवाल और उनकी पार्टी के लिए यह चुनाव एक बड़ा सबक साबित हुआ है। अब यह
देखना दिलचस्प होगा कि वे इस हार से कोई सीख लेकर पार्टी को पुनर्जीवित कर पाते
हैं या फिर आम आदमी पार्टी भी उन क्षेत्रीय दलों की फेहरिस्त में शामिल हो जाएगी,
जो सत्ता के
गलियारों में गुम होकर इतिहास का हिस्सा बन गईं।
केजरीवाल की हार: गलतियों की पड़ताल
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की करारी हार के पीछे कई कारण रहे।
जबकि बीते 10 वर्षों में अरविंद केजरीवाल की सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक, विश्वस्तरीय
स्कूल, मुफ्त बिजली और पानी जैसी योजनाओं के जरिए एक मज़बूत वोट बैंक तैयार किया था,
फिर भी यह
जनसमर्थन आखिर क्यों खिसक गया?
फ्री योजनाओं का लाभ निचले तबके और निम्न मध्यम वर्ग को जरूर मिला, लेकिन
जैसे-जैसे वर्ग ऊपर गया, सवाल उठने लगे कि दिल्ली की समग्र स्थिति में सुधार क्यों
नहीं हुआ। जनता को यह महसूस हुआ कि ट्रैफिक जाम, प्रदूषित हवा और पानी की
समस्या जैसी बुनियादी समस्याओं पर सरकार का ध्यान नहीं गया। विकास का संतुलन केवल
फ्री सुविधाओं तक ही सीमित रह गया।
केजरीवाल ने राजनीति में आने का कारण "जनता की
सेवा" बताया और अपनी पार्टी की छवि "कट्टर ईमानदार" के रूप में
स्थापित की। मगर जब शराब घोटाले का मामला सामने आया, तब भले ही अभी
तक कोई ठोस सबूत न मिले हों, भाजपा ने इसे भुनाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी। विपक्ष ने जनता के दिमाग में यह बात बैठाने में सफलता पाई कि
"दाल में कुछ काला है।"
आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका यह था कि उसके पास इन आरोपों का कोई
प्रभावी जवाब नहीं था। जनता के मन में संदेह गहराता गया और ईमानदार छवि धूमिल होती
गई। नतीजतन, केजरीवाल का जादू फीका पड़ गया और पार्टी को अर्श से फर्श पर ला पटका।
इस हार से साफ है कि जनता केवल मुफ्त सेवाओं से संतुष्ट नहीं होती, बल्कि उसे
समग्र विकास और पारदर्शिता भी चाहिए। अब देखना होगा कि आम आदमी पार्टी इस संकट से
कैसे निकलती है या फिर यह भी उन क्षेत्रीय दलों में शामिल हो जाएगी, जो सत्ता में
आकर कुछ समय बाद गुमनाम हो गए।
केजरीवाल की हार: टकराव की राजनीति और जनता की नाराज़गी
अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी गलतियों में से एक उनकी
टकरावपूर्ण राजनीति और हमेशा खुद को पीड़ित साबित करने की रणनीति रही। 2013
में जब
उन्होंने खुद को "सिस्टम का शिकार" दिखाया, तो जनता ने 2015 में उन्हें
भारी बहुमत दिया। लेकिन इसके बाद भी वह लगातार यह संदेश देते रहे कि केंद्र सरकार
और उपराज्यपाल उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं।
हालांकि, इसमें सच्चाई थी कि दिल्ली के उपराज्यपाल ने कई योजनाओं की फाइलें रोककर रखीं,
और कई मौकों पर
आम आदमी पार्टी को कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। नगर निगम भी लंबे समय तक भाजपा
के नियंत्रण में रहा, जिससे दिल्ली की शहरी व्यवस्थाएं बिगड़ी रहीं। लेकिन जब
सत्ता में बैठी पार्टी हर बार अपनी लाचारी ही जताने लगे, तो जनता भी सोचने लगी कि जब
आप इस सिस्टम में काम नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर क्यों सत्ता में बने रहना चाहते हैं?
इसी सिस्टम के
साथ शीला दीक्षित ने भी काम किया और एक सफल मुख्यमंत्री बनीं।
इसी बीच भाजपा ने एक मजबूत रणनीति बनाई। पार्टी ने यह ऐलान किया कि केजरीवाल
सरकार की मुफ्त बिजली, पानी, स्वास्थ्य और परिवहन योजनाएं बंद नहीं की जाएंगी, बल्कि और भी
कल्याणकारी योजनाएं लाई जाएंगी। इसने जनता को भरोसा दिलाया कि अगर वे भाजपा को वोट
देते हैं, तो उन्हें मुफ्त सुविधाओं का लाभ भी मिलेगा और विकास भी होगा। साथ ही, भाजपा ने
नौकरीपेशा वर्ग को आठवें वेतन आयोग और कर छूट की घोषणा से साध लिया। झुग्गीवासियों
के लिए "जहां झुग्गी, वहां मकान" और सीलिंग में राहत की गारंटी खुद
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दी, जिसे जनता ने "मोदी की गारंटी" मानकर स्वीकार कर
लिया।
इसके अलावा, भाजपा ने केजरीवाल और उनकी पार्टी के कई शीर्ष नेताओं को
भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल भेजकर उनकी छवि को गहरी चोट पहुंचाई। इस बीच,
आम आदमी पार्टी
कोई नई योजना लागू नहीं कर पाई और दिल्ली में विकास ठप सा हो गया। इसी दौरान जब
भाजपा ने आरोप लगाया कि केजरीवाल ने अपने लिए "शीशमहल" बनवाया, तो उनकी
"आम आदमी" वाली छवि भी पूरी तरह बिखर गई।
नतीजतन, जनता ने "रोंदू राजनीति" करने वाली आम आदमी पार्टी को नकार दिया और
भाजपा को सत्ता सौंपने का फैसला किया, जो उनके मुताबिक, स्वतंत्र रूप से काम करने
में ज्यादा सक्षम दिखी।
केजरीवाल की सबसे बड़ी भूल: ओवरएस्टीमेशन और गठबंधन से
इनकार
दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती उनकी अपनी ताकत
को ज़रूरत से ज्यादा आंकना रही। उन्होंने यह मान लिया कि आम आदमी पार्टी अकेले दम
पर भाजपा को टक्कर दे सकती है, इसलिए उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन की संभावनाओं को
सिरे से खारिज कर दिया। जबकि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किए गए गठबंधन के मॉडल पर
काम करने के लिए तैयार थी।
दिल्ली में कांग्रेस पहले से ही शून्य पर थी और इस चुनाव में भी उसे कोई सीट
नहीं मिली। लेकिन उसकी मौजूदगी ने आम आदमी पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया। 14
सीटों पर आम
आदमी पार्टी की हार का अंतर, कांग्रेस को मिले वोटों से कम था। यानी अगर दोनों पार्टियां
गठबंधन करके चुनाव लड़तीं, तो उनकी कुल सीटें 37 हो सकती थीं और भाजपा 34
पर सिमट जाती।
जबकि बहुमत के लिए सिर्फ 36 सीटों की जरूरत थी।
यह गणित साफ दिखाता है कि अगर केजरीवाल ने समय रहते अपनी रणनीति में बदलाव
किया होता और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया होता, तो चुनाव का नतीजा पूरी तरह
उलट सकता था। मगर "हम अकेले जीत सकते हैं" की सोच ने उन्हें इस मौके से
दूर कर दिया और नतीजतन आम आदमी पार्टी ने सत्ता ही नहीं, बल्कि अपना राजनीतिक भविष्य
भी दांव पर लगा दिया।
केजरीवाल की हार: अहम, रणनीतिक भूल और भविष्य की
चुनौतियाँ
अगर केजरीवाल का अहम आड़े न आता, तो कांग्रेस से
गठबंधन कर आम आदमी पार्टी की जीत लगभग तय हो सकती थी। राहुल गांधी से बातचीत कर
चुनावी तालमेल बैठाया जा सकता था, लेकिन केजरीवाल ने यह मौका
गंवा दिया। कांग्रेस अब भी दिल्ली में उस ताकत तक नहीं पहुंच पाई है, जो उसे शीला
दीक्षित के दौर में हासिल थी, और इस स्थिति से उबरने में
उसे अभी कई दशक लग सकते हैं। मगर केजरीवाल को इस दूरदर्शिता के साथ फैसला लेना
चाहिए था, जिसमें वे पूरी तरह विफल रहे।
इस चुनाव में आम आदमी पार्टी को तगड़ा झटका लगा है। पार्टी के कई बड़े नेता
चुनाव हार गए, जिसमें खुद अरविंद केजरीवाल अपनी नई दिल्ली सीट से भाजपा के
प्रवेश वर्मा के हाथों 4000 से अधिक वोटों से पराजित हुए। जंगपुरा से मनीष सिसोदिया और
पटपड़गंज से अवध ओझा जैसे उम्मीदवार भी हार गए। इस पराजय ने आम आदमी पार्टी के
भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि अब सत्ता गंवाने के बाद केजरीवाल अपनी
पार्टी को कैसे आगे बढ़ाएंगे।
राजनीति में सत्ता एक मजबूत जोड़ने वाला तत्व होता है। जब तक कांग्रेस सत्ता
में थी, उसके नेता एकजुट थे, लेकिन जैसे ही वह कमजोर हुई, उसके कई दिग्गज भाजपा में
शामिल हो गए। अब भाजपा आम आदमी पार्टी के साथ भी यही रणनीति अपनाने की कोशिश
करेगी—उसे इतना कमजोर कर देना कि वह फिर कभी सिर न उठा सके। आने वाले दिनों में
जांच एजेंसियों का दबाव और बढ़ेगा, आम आदमी पार्टी के नेताओं पर नए-नए मामलों की गाज गिरेगी,
और कई नेताओं
को जेल में डालने की कवायद शुरू होगी।
ऐसे में केजरीवाल के लिए आगे का रास्ता बेहद मुश्किल और चुनौतीपूर्ण रहने वाला
है। उन्हें अब न सिर्फ पार्टी को बचाना होगा, बल्कि अपने खोए जनाधार को
भी वापस पाने के लिए नई रणनीति बनानी होगी।