संपादकीय: वक्फ संशोधन विधेयक - एक कानून से कहीं अधिक, एक राजनीतिक संदेश

### संपादकीय: वक्फ संशोधन विधेयक - एक कानून से कहीं अधिक, एक राजनीतिक संदेश

 

वक्फ संशोधन विधेयक, 2025, जिसे संसद के दोनों सदनों ने स्वीकृति प्रदान की और अब राष्ट्रपति महोदया की मंजूरी के साथ यह कानून का रूप ले चुका है, निस्संदेह एक ऐतिहासिक कदम है। यह विधेयक केवल वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और पारदर्शिता को लेकर सुधार का प्रयास नहीं है, बल्कि इसके पीछे छिपी राजनीतिक और सामाजिक परतें इसे एक बहुआयामी घटना बनाती हैं। इस विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया में दो ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं सामने आईं, जिन्हें शायद सतही तौर पर देखने वाले नजरअंदाज कर दें, लेकिन गहरी नजर रखने वालों के लिए ये संकेत बेहद साफ हैं।

 

पहली घटना मुस्लिम समुदाय के भीतर उभरे मतभेद की है। इस विधेयक ने मुस्लिम संगठनों को दो स्पष्ट धड़ों में विभाजित कर दिया। एक ओर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और पसमांदा समाज जैसे समूह इसके समर्थन में खड़े दिखे, जो इसे गरीब और हाशिए पर पड़े मुस्लिमों के हित में एक कदम मानते हैं। दूसरी ओर, अशराफ और सैयद जैसे प्रभावशाली वर्ग इसके विरोध में उतर आए, इसे वक्फ की स्वायत्तता पर हमला बताते हुए। यह विभाजन अपने आप में एक बड़ा संदेश है। यह दर्शाता है कि मुस्लिम समुदाय एक अखंड इकाई नहीं है, जैसा कि अक्सर राजनीतिक विमर्श में प्रस्तुत किया जाता है। इस विभाजन ने यह भी संकेत दिया कि यदि सही रणनीति अपनाई जाए, तो दशकों से चली आ रही एकसमानता की धारणा को तोड़ा जा सकता है। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे संगठनों को सशक्त करने की आवश्यकता अब पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो गई है, क्योंकि यह एक ऐसा मंच है जो समुदाय के भीतर वैकल्पिक आवाज को मजबूती दे सकता है।

 

दूसरी घटना और भी सूक्ष्म लेकिन गहरे प्रभाव वाली है। इस विधेयक के पारित होने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद के किसी भी सदन में मौजूद नहीं थे। वह उस समय एक विदेशी दौरे पर थे। यह पहली नजर में महज एक संयोग लग सकता है, लेकिन राजनीति के जानकारों के लिए यह एक सुनियोजित कदम का हिस्सा प्रतीत होता है। इस महत्वपूर्ण विधेयक को पारित कराने की जिम्मेदारी उनके "सेनापति" ने संभाली थी। और जिस तरह से इसे अंजाम दिया गया - संगठनात्मक कुशलता, सहयोगी दलों के साथ तालमेल, और फ्लोर मैनेजमेंट का उत्कृष्ट प्रदर्शन - वह धारा 370 को हटाने जैसी घटना की याद दिलाता है। यह एक संकेत है कि यह विधेयक केवल कानूनी सुधार नहीं था, बल्कि एक अग्निपरीक्षा थी - एक ऐसी परीक्षा जो शायद यह तय करने के लिए आयोजित की गई थी कि मोदी जी के बाद कमान कौन संभालेगा।

 

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वक्फ संशोधन विधेयक ने एक यक्ष प्रश्न का जवाब दे दिया है, जो लंबे समय से भारतीय राजनीति में गूंज रहा था - "मोदी के बाद कौन?" इस प्रक्रिया में जिस तरह से गृह मंत्री अमित शाह ने नेतृत्व किया, विपक्ष के तर्कों को खारिज किया, और सहयोगी दलों का समर्थन सुनिश्चित किया, वह उनकी राजनीतिक काबिलियत का प्रमाण है। यह विधेयक न केवल वक्फ बोर्ड के सुधार की बात करता है, बल्कि एक उत्तराधिकारी की पहचान को भी रेखांकित करता है। बिना कुछ कहे, शायद मोदी जी ने अपने इस कदम से संदेश दे दिया है कि उनकी अनुपस्थिति में भी उनकी टीम का यह कमांडर न केवल स्थिति को संभाल सकता है, बल्कि उसे विजयी परिणाम तक पहुंचा सकता है।

 

हालांकि, यहाँ एक और नाम की चर्चा जरूरी है - योगी आदित्यनाथ। महाराज जी निस्संदेह एक कुशल प्रशासक हैं और प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य उम्मीदवार माने जाते हैं। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों और राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए लगता है कि उनका नंबर अभी के उत्तराधिकारी के बाद ही आएगा। शाह की संगठनात्मक मजबूती, भाजपा के भीतर उनकी पकड़, और सहयोगी दलों के साथ उनके रिश्ते उन्हें इस दौड़ में आगे रखते हैं।

 

लोग इसे अलग-अलग नजरिए से देख सकते हैं। कुछ इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला मानेंगे, तो कुछ इसे सुधार की दिशा में एक कदम। लेकिन एक बात साफ है - यह विधेयक केवल कानून की किताब में एक नया अध्याय नहीं जोड़ता, बल्कि भारतीय राजनीति के भविष्य की रूपरेखा भी खींचता है। यह एक संशोधन से कहीं अधिक है; यह एक संदेश है, एक रणनीति है, और शायद एक नए युग की शुरुआत भी।