'समरसता' का प्रस्ताव या 'संघ शक्ति' का उद्घोष?

रविवार (23 मार्च) को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने एक प्रस्ताव पारित किया । आरएसएस ने जो प्रस्ताव पारित किया, वह महज़ एक औपचारिक घोषणा भर नहीं है। इसे एक संकेत के रूप में देखिए—संकेत उस विचारधारा का, जो भारत की राजनीति, समाज और संस्कृति को एक नई दिशा देने की कोशिश में है।

आरएसएस कहता है कि वैश्विक शांति और समृद्धि के लिए ‘संगठित और समरस हिंदू समाज’ आवश्यक है। सवाल उठता है—क्या शांति केवल एक खास विचारधारा की देन हो सकती है? क्या समरसता का आधार धर्म होगा? और अगर हां, तो फिर बाकी समाज का क्या स्थान होगा?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में पारित प्रस्ताव ‘संगठित और समरस हिंदू समाज’ पर ज़ोर देता है। इस प्रस्ताव के केंद्र में ‘वैश्विक शांति और समृद्धि’ की परिकल्पना है। आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में पारित प्रस्ताव को पढ़िए और फिर देश की वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर नज़र डालिए। संघ ने 'वैश्विक शांति' और 'समरस हिंदू समाज' की बात की।  संघ का मानना है कि भारत के पास दुनिया को समरसता प्रदान करने का अनुभवजन्य ज्ञान है, और हिंदू समाज तभी अपनी वैश्विक जिम्मेदारी निभा सकता है, जब वह धर्म के आधार पर संगठित और आत्मविश्वास से भरपूर सामूहिक जीवनशैली अपनाए। अब सवाल यह है कि यह ‘संगठन’ किस दिशा में होगा और यह ‘समरसता’ किस वर्ग के लिए होगी?

# विचारधारा के दायरे में समरसता

संघ की यह बात गौर करने लायक है कि ‘हिंदू समाज अपनी वैश्विक जिम्मेदारियों का निर्वहन तभी कर सकता है, जब वह धर्म के आधार पर संगठित हो।’ यह कथन एक बड़ा संदेश देता है। जब भारतीय संविधान सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने की बात करता है, तब क्या यह प्रस्ताव भारतीय संविधान की मूल भावना से मेल खाता है?

संघ का प्रस्ताव कहता है कि हमें सभी प्रकार के भेदभावों को त्यागते हुए एक समरस आचरण अपनाना चाहिए। लेकिन जब ज़मीनी सच्चाई देखें, तो क्या यह समरसता सामाजिक विषमता को मिटा पाएगी? क्या यह समरसता जातिगत भेदभाव को खत्म करेगी? क्या यह समरसता धार्मिक ध्रुवीकरण को कम करेगी या फिर यह केवल हिंदू समाज को एकजुट करने की योजना है, जिसमें ‘अन्य’ की कोई जगह नहीं? रविवार को पारित प्रस्ताव में कहा गया कि भारत के पास दुनिया को 'समरसता' का अनुभवजन्य ज्ञान देने की शक्ति है। लेकिन क्या संघ को यह भी याद है कि यही भारत जातीय भेदभाव, आर्थिक असमानता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से भी जूझ रहा है? प्रस्ताव में 'धर्म आधारित संगठित समाज' की बात की गई। सवाल है—कौन सा धर्म? क्या यह हिंदू समाज के भीतर मौजूद जातीय विभाजन की भी बात करेगा? क्या दलित, आदिवासी, पिछड़े समाज की आवाज़ इस समरसता में शामिल होगी?

# किस ‘राष्ट्रीय जीवन’ की बात हो रही है?

संघ की भाषा में ‘सशक्त राष्ट्रीय जीवन’ का मतलब आध्यात्मिकता और भौतिक समृद्धि के साथ समाज की सभी समस्याओं का समाधान बताया गया है। लेकिन क्या यह राजनीतिक सत्ता के समीकरणों से अलग है? यह संयोग मात्र नहीं है कि इस प्रस्ताव में बीजेपी के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और संगठन महामंत्री बी.एल. संतोष मौजूद थे। यह ‘राष्ट्रीय जीवन’ कहीं चुनावी रणनीति का हिस्सा तो नहीं, जो ‘हिंदू एकता’ की पृष्ठभूमि तैयार कर रही हो?

ध्यान दीजिए कि प्रस्ताव में 'नागरिक कर्तव्य' की बात है, लेकिन नागरिक अधिकारों का ज़िक्र तक नहीं। जब हाल ही में देशभर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठ रहे हैं, बेरोजगारी चरम पर है, तब संघ को 'मूल्य आधारित परिवार' और 'धर्म परायण सज्जन शक्ति' की चिंता है।

# इतिहास और राजनीति का नया गठजोड़

संघ ने उल्लाल की रानी अबक्का को उनकी 500वीं जयंती पर श्रद्धांजलि दी। जिन्होंने पुर्तगालियों से लोहा लिया था। गौर करने वाली बात यह है कि रानी अबक्का इतिहास में सिर्फ अपने युद्ध कौशल के लिए ही नहीं जानी जातीं, बल्कि उनकी सेना में हिंदू-मुस्लिम दोनों योद्धा थे। लेकिन क्या संघ इस पहलू को भी सामने लाएगा?

यह ऐतिहासिक पात्रों के जरिए एक नई ऐतिहासिक चेतना को गढ़ने का प्रयास है, जिसमें हिंदू शौर्य गाथाओं को फिर से स्थापित किया जा रहा है। यह उसी प्रक्रिया का हिस्सा लगता है, जिसमें शिवाजी, महाराणा प्रताप, और गुरु गोविंद सिंह को बार-बार हिंदू अस्मिता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है,

 ‘# हिंदू समाज’ की परिभाषा कौन तय करेगा?

आरएसएस का प्रस्ताव सुनने में जितना आकर्षक लगता है, उतना ही पेचीदा भी है। ‘हिंदू समाज’ का संगठन और समरसता तभी संभव होगी जब यह किसी एक वर्ग विशेष के फायदे तक सीमित न रहकर सामाजिक अन्याय को मिटाने की दिशा में आगे बढ़े। लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि ‘हिंदू एकता’ का नारा सामाजिक सुधार की दिशा में कम और राजनीतिक ध्रुवीकरण की दिशा में ज़्यादा बढ़ता है।

संघ का यह प्रस्ताव केवल सांस्कृतिक मुद्दा नहीं है। यह उस राजनीति का संकेत है, जो धर्म और समाज के मेल से एक नई व्यवस्था की ओर बढ़ने की तैयारी में है। ‘संगठित हिंदू समाज’ का विचार क्या राजनीतिक एजेंडे का नया मोर्चा है? क्या समरसता के इस सिद्धांत में विविधता के लिए कोई स्थान है?

संघ ने आह्वान किया है कि धर्मपरायण लोग दुनिया के सामने संगठित और समरस भारत का आदर्श प्रस्तुत करें। लेकिन यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि यह आदर्श किसके लिए है?  क्या 'संगठित हिंदू समाज' की परिभाषा में देश के सभी वर्गों के लिए समान अवसर होंगे? क्या यह 'वैश्विक शांति' की सोच को धर्म की संकीर्ण परिधि से बाहर निकालकर एक व्यापक दृष्टिकोण देगा? या फिर यह प्रस्ताव केवल सत्ता के समीकरणों को मजबूत करने का एक और दस्तावेज़ बनकर रह जाएगा? क्योंकि इतिहास गवाह है—जब भी 'धर्म' को 'राजनीति' का औजार बनाया गया, तब 'समरसता' नहीं, बल्कि 'विभाजन' हुआ है। सवाल बहुत हैं, लेकिन जवाब….. शायद आने वाले समय में, जब राजनीति की ज़मीन और भी साफ़ होगी।